शायद इस अवगुण से ही मैं , “विद्रोही” कहलाता हूँ ।



नवोदित कवियों के उत्साहवर्धन हेतु रचित रचना जो एक देश के सुनामधन्य वरिष्ठ कवि को मेरा प्रत्युत्तर भी है ।
 जिनका वक्तव्य था ""अभिमन्यु भरे पड़े हैं " ।
भूल गऐ क्या ? जब अभिमन्यु युद्धक्षेत्र में आऐ थे ।वीरों ने ,अतिवीरों तक ने , नाकों चने चबाऐ थे ।
चंद्रदेव के पुत्र मोह से, अंशमात्र जीवन पाया । और देह में अपनी माँ के, वो अर्जुन नंदन आया ।

गर्भकाल में श्रवणशक्ति ने, चक्रव्यूह का ज्ञान दिया ।कुरुक्षेत्र में जिसने, अतिरथियों के सम सम्मान दिया ।
कर्ण ,द्रोण स्तब्ध खड़े सुन, अभिमन्यु के गर्जन को ।देख रहे थे मौन धरे ,  अर्जुनसुत  के यश अर्जन को ।
चक्रव्यूह  के  सब द्वारों  पे ,दस्तक  देकर  आये  थे ।गुरु द्रोण जिसकी रचना कर,मन ही मन हर्षाऐ थे ।
दुर्योधन की भीषण सेना का,मान भंग कर डाला था ।चक्रव्यूह के छ: द्वारों को,खंड – खंड कर डाला था ।

ज्येष्ठ,वृद्ध, अतिवीर,रथी तब स्वार्थ के फंदे झूल गऐ ।बालक वध के लिऐ ,युद्ध के मापदंड सब  भूल गऐ ।
लगता जयद्रथ वंशज हो,जो रणभूमि में शेष  बचे ।वो कायर जिनके मानों के,ना कोई  अवशेष बचे ।
काव्यलोक को  कुरुक्षेत्र  जो मान रहे , धिक्कार नहीं ।पर पुन: जयद्रथ बनने का है , इन्हें शेष  अधिकार नहीं ।
काव्यजगत के वीरों तुम, अभिमन्यु को स्वीकार करो ।हिंदी मधुबन के नवपुष्पों का ना, तुम प्रतिकार करो ।

जो वृक्ष किसी नवकोंपल के,आने खुश ना होता है ।चिरपतझड़ सा जीवन थामे ,पूरी आयु में  रोता है  ।
ये युद्ध नहीं ये भक्ति है, सब सरस्वती के बेटे हैं ये सब भी दौड़ लगाऐंगे,तत्काल समय जो लेटे हैं ।
ये करवट लेंगे , फिर बैठेंगे,  फिर ये चलने पाऐंगे
ये ही काव्यसंरक्षक माँ हिंदी का मान बढ़ाऐंगे
मेरी पीढ़ी जब आहत हो , मैं शब्ददंश दिखलाता हूँ ।

शायद इस अवगुण से ही मैं , “विद्रोही” कहलाता हूँ ।
                                                                                                                          
रचनाकार – विजय कुमार विद्रोही
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