बीसी रॉय इंस्टिट्यूट, सियालदाह में यतीश कुमार की बहुप्रशंसित
पुस्तक 'बोरसी भर आँच' पर परिचर्चा का कार्यक्रम आयोजित किया गया। कार्यक्रम में हिंदी
के सुपरिचित कवि-लेखक देवी प्रसाद मिश्र, प्रो. हितेन्द्र पटेल, प्रोफेसर वेदरमण,
प्रो. संजय जायसवाल, ऋतु तिवारी और योगाचार्य भूपेन्द्र शुक्लेश वक्ता के तौर पर उपस्थित
थे। स्मिता गोयल ने अंगवस्त्र प्रदान कर सभी वक्ताओं का स्वागत व सम्मान किया।
लेखक, यतीश कुमार, मूलतः बिहार के मुंगेर जिले से हैं। भारतीय रेलवे
सेवा के प्रशासनिक अधिकारी हैं और 22 वर्ष की उत्कृष्ट सेवाओं के फलस्वरूप इन्हें भारत
के 'सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम' का सबसे युवा अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक बनने का
गौरव प्राप्त है। साहित्य सृजन के साथ-साथ विभिन्न साहित्यिक-सामाजिक संस्थाओं से भी
सक्रिय रूप से जुड़े हैं। पिछले कुछ वर्षों में, चर्चित उपन्यासों, कहानियों, यात्रा-वृतान्तों
पर अपनी विशिष्ट शैली में कविताई और काव्यात्मक समीक्षा के लिए इन्होंनें अपनी एक अलग
पहचान बनाई है।
कार्यक्रम का कुशल संचालन आलोचक विनय मिश्र नें बड़े ही सधे हुए
अंदाज में किया। यतीश जी के बचपन के मित्र और इस किताब के किरदार लाभानंद जी राँची
से आकर कार्यक्रम में शरीक हुए। निर्मला तोदी, कथाकर विजय शर्मा, मृत्युंजय श्रीवास्तव,
मंजू रानी श्रीवास्तव, अनिला रखेचा, पूनम सोनछत्रा, रचना सरण, मनोज झा, आनंद गुप्ता,
पूनम सिंह,कवि सुनील शर्मा के साथ रेलवे के और भी अधिकारीगण अतिथि के तौर पर
उपस्थित रहे। ऑडिटोरियम प्रबुद्ध श्रोताओं से अंत तक भरा रहा।
अपनी बात रखते हुए प्रो. संजय जायसवाल ने कहा कि 'यह किताब व्यक्तिगत
सत्य से सामाजिकता का सफर तय करती है। यह सिर्फ कथा नहीं है नई पीढ़ी को शिक्षा देने
वाली किताब है। यह किताब सिर्फ अपने व्यक्तिगत पारिवारिक बखान नहीं करती हैं अपितु
उस वक्त की सामाजिकता, राजनीतिकरण का सकारात्मक आख्यान है।'
भूपेंद्र शुक्लेश ने कहा कि 'यह किताब आत्म-कथात्मक दस्तावेज है।
इसे किसी प्रचलित श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए। कोई नई श्रेणी ही तय की जानी चाहिए।
किताब जीवन का साझा दस्तावेज है। जीवन को इतना खरा रख दिया कि जीवन अंगारे सा लगे।
स्पष्टता, सत्यता, विनम्रता इस किताब की जान है। आध्यात्मिक जीवन में अच्छे-बुरे को
किसी मापदंड में नहीं तौला जाता। इस किताब में बहुत कुछ ऐसा है कि आपको जीवन मुफ्त
में जीने मिलेगा। आग्रह करुंगा कि जीवन में किसी चीज से वंचित न रह जाएं तो इस किताब
से गुज़रे। वृहत रूप में कहें तो इस किताब को पढ़ना जीवन को जीना सिखाता है।'
ऋतु तिवारी ने 'बोरसी भर आँच' को एक बाइस्कोप बताते हुए कहा कि
लेखक ने अपने अतीत में जाकर लिखा है। इस किताब की खास बात यह है लेखक की ईमानदारी।
हमें अपने जीवन के प्रति, लेखन के प्रति ईमानदार होना चाहिए। ईमानदारी हमें संवेदनशील
बनाती है। आप जब इस किताब से गुज़रेंगे तो देखेंगे कि रेल की पटरियों की तरह ही चीकू
के व्यक्तित्व का विस्तार हुआ है। चीकू का संघर्ष कई मायने में मानवीय है, प्रेरणा
तो ले सकते हैं पर क्या हम यह कर पायेंगे कि जब हम उस संघर्ष में हो तो उतने ही मानवीय
रह पायेंगे। 'बोरसी की आँच' विस्तार की प्रतिबद्धता की, जीवन दर्शन की आँच है। ये किताब
हमें ये सोचने के लिए मजबूर करेगी कि हम भी अपने जीवन के प्रति, अपने समाज के प्रति
इतने ही ईमानदार हो सकते हैं चाहे परिस्थितियों कैसी भी हो।
प्रोफेसर, आलोचक वेद रमण ने अपनी बात रखते हुए कहा कि यह यतीश जी
की पद्य से गद्य की, अतीत से बाइस्कोप की यात्रा है। इस पुस्तक में जीवन संघर्ष अगर
किसी का है तो वह माँ का है। जीवन साहस अगर किसी का है तो दीदी का है। जीवन मेधा अगर
किसी की है तो बड़े भाई की, जीवन प्रेम अगर किसी का है तो स्मिता का है, तब इस
पुस्तक में चीकू क्या है ? दरअसल गो-रस की तरह चीकू ने अपने जीवन को धीरे-धीरे पकाया
और इन सबको ले चीकू इस पुस्तक के केंद्र में आ गया। एक नक्षत्र बन गया, एक सितारे की
तरह चमक गया। आज के समय में जब सब अपनी-अपनी स्मृतियों को लिखने में लगे हैं, यह पुस्तक
साझी स्मृतियों की बात कहती है। इस पुस्तक से सूक्तियों का एक संकलन तैयार किया जाए
तो एक अलग पुस्तिका निकाली जा सकती है।
साहित्य में सफलता के लिए क्या चाहिए, व्यवहार कुशल होना चाहिए,
प्रबंध कौशल होना चाहिए, संसाधन कौशल भी होना चाहिए। सभी से ऊपर कौशल को क्रियान्वित
करने की कुशलता भी होनी चाहिए। यह किताब एक व्यक्ति के,आज की युवा पीढ़ी के स्वपन व
संघर्ष की गाथा है।
प्रो. हितेंद्र पटेल ने कहा कि 'एक समाज के रूप में हम बहुत पीछे
हैं बल्कि हमारा समाज अभी बन रहा है। अब हम एक ऐसे समाज में आ चुके हैं जहां सभ्य बनने
की गुंजाइश ख़ुद पैदा करनी होगी। साहित्य दर्द का ही एक बड़ा आख्यान बन कर ही आता है।
इस किताब की ईमानदारी व्यक्तिगत ईमानदारी नहीं है। समाज-गत ईमानदारी है।
ये किताब आत्मकथा तो नहीं है। आत्म-कथात्मक है, आत्मकथा के लिये
खोजबीन में जाना होगा और ये किताब सैरबीन है। इस किताब में सब कुछ है बस उसे खोजना
होगा। सत्य संरचना का पर्याय यश कभी नहीं हो सकता। यतीश जी ने अचूके ही सही उस समय
के यथार्थ को छू दिया है जो टप-टप बूंद के रुप में किताब में झर रहा है और हमें चाहिए
कि उस यथार्थ से अपने यथार्थ को जोड़े। जीवन बनाना नहीं समझना है।
देवी प्रसाद मिश्र जी ने अपनी बात रखते हुए कहा कि 'साहित्य में
हम अपनी वैधता ढूँढते हैं, सामाजिक सांस्कृतिक वैधता... इसके बिना फिर हम अपने
जीवन में कुछ भी नहीं है। इस अर्थ में देखो तो यह किताब एक स्ट्रैटेजिक संरचना सी लगती
है। एक इकनॉमिक काम लगता है एक सुचेतिक काम लगता है। इसमें बहुत कुछ अनकॉन्शियस है
बहुत कुछ अवचेतन से भरा हुआ है जो कि जाहिर है की अवचेतन और स्मृतियों के बीच एक गहरा
संबंध देखा गया है।
लेकिन यहां जैसे की ये अपने को विखंडित कर रहा हो। एक तरह से रिवर्सल
ऑफ पावर स्ट्रक्चर हो रहा हो कि दरअसल हमारे मुख्य भूमि मानो भूमि क्या है...और मूलतः
ये एक जो बुनियादी मार्मिकता है उसके पावर स्ट्रक्चर की जो लेयर है उसको मिटा नहीं
सकती और इस तरह से दारिद्रय की ओर जाना अपने को मुक्त करना है इस पूरे पैराफरनेलिया
से... हो सकता है इतने स्थूल तरीके से इस किताब में ना सोचा गया हो लेकिन लगता है शक्ति
संरक्षण को लेकर शायद पश्चात है कोई जो इसे अतीत की ओर ले जाता है यह जाहिर करने के
लिए की दरअसल मैं ये हूं... एक अमिटता है इसमें... तो यह अपने को इस तरह से उल्लेख
करना मात्र अपनी जड़ों की ओर जाने का नॉस्टैल्जिया नहीं है बल्कि यह एक आयत बोध है,
इस बात को उपलब्ध करने के लिए कि भारत एक इस तरह की विपन्नता, पारस्परिकता, परिवारिकता,
कौटुंबिता और इस तरह की आपबीती से बना हुआ है और जो आपबीती है वह परबीती भी है। इस
अर्थ में देखें तो यह किताब भारत को, अपने को, अपने परिवेश, समाज को पुनराविशित करने
की किताब है। जो की बेहद पठनीय है, उदार है, समावेशी है सूक्तियों से भरी एक कवि की
किताब है।
यह पूरी सामाजिक आर्थिक गहरे इतिहास बोध से भरी किताब है। इस तरह
से इसमें एक सामाजिक राजनैतिक संगम हमें दिखाई देता है। इसमें निर्मलता और अकलुषता
का दस्तावेज है। उम्र की मासूमियत है। बहुत सारे दुराव, निंदा, पतन के बावजूद एक इंसान
इन सभी चीजों को बटोर देख रहा है ऐसा प्रतीत होता है इस किताब में... मेरे लिए यह बहुत
महत्वपूर्ण किताब है।'